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पीएम नरेंद्र मोदी को कबीर से प्रेम या ये ‘महागठबंधन’ की काट है?

“छह महीने पहले सोलहवीं सदी के महान संत कबीरदास की समाधि स्थल पर कई साल से हो रहे मगहर महोत्सव को पैसे की वजह से रद्द कर दिया गया और अब करोड़ों रुपये ख़र्च करके इतना बड़ा आयोजन हो रहा है तो आपको क्या लगता है, ये कबीर के प्रति प्रेम है, आस्था है या श्रद्धा है? कुछ नहीं. ये सिर्फ़ वोट की राजनीति है.”

मगहर में कबीर की समाधि स्थल पर देवरिया से आए 60 वर्षीय राम सुमेर बेहद तल्ख़ लहज़े में ये टिप्पणी करते हैं. आगे किसी भी सवाल का जवाब वो बेहद ग़ुस्से में देते हैं, “आप पत्रकार होकर नहीं जानते कि ये सब क्यों हो रहा है या फिर हमें परेशान करने के लिए पूछ रहे हैं?”

राम सुमेर के तेवर देखकर कुछ तो उनके समर्थन में बोलने लगे और कुछ मंद-मंद मुस्करा भी रहे थे, लेकिन राम सुमेर जो बात कह रहे थे उसमें तथ्यात्मक सच्चाई तो थी ही और अनुमान वाली बात का उन्होंने सीधे तौर पर जवाब ही नहीं दिया. उनका दावा है कि वो हर साल मगहर महोत्सव में आते हैं और वैसे भी साल में तीन-चार बार यहां आते रहते हैं.
दरअसल, मगहर स्थित कबीर की समाधि पर हर साल साल 12 जनवरी से 18 जनवरी तक मगहर महोत्सव आयोजित किया जाता है. आयोजन एक समिति करती है और राज्य का पर्यटन मंत्रालय इसमें विशेष सहयोग करता है. पिछले दो साल से इसका आयोजन बंद है.

कबीर की समाधि स्थल के पास एक दुकानदार बताते हैं, “2017 में तो चुनाव के चलते ये आयोजन नहीं हो पाया, लेकिन इस साल तो ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी. इतना बड़ा गोरखपुर महोत्सव मनाया गया, लेकिन कबीर को छोड़ दिया गया.”

अब क्यों इतना बड़ा कार्यक्रम हो रहा है कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और तमाम नेता यहां आ रहे हैं? इस सवाल का जवाब ये सज्जन सिर्फ़ अपनी मुस्कान से देते हैं, “हमको नहीं पता.”
लेकिन कबीर के अनुयायियों का सामाजिक दायरा, उनकी पहुंच और उनके प्रभाव को देखते हुए ये समझना मुश्किल नहीं लगता कि लोकसभा चुनाव से ऐन पहले कबीर के प्रति अचानक उमड़े प्रेम के पीछे क्या है?

वरिष्ठ पत्रकार शरद प्रधान बताते हैं, “देखिए, नरेंद्र मोदी एक छोटी-सी जगह पर इतने बड़े कार्यक्रम में शामिल हो रहे हैं तो इसके पीछे फ़ायदे की राजनीति तो है ही. देश भर में फैले कबीरपंथियों को इस जगह से बेहतर संदेश और कहां से दिया जा सकता था. दूसरे कबीर पंथी ज़्यादातर पिछड़े और दलित समुदायों से आते हैं तो ज़ाहिर है, इन्हें साधने की यह एक ज़ोरदार कोशिश हो सकती है. पिछले चुनावों में भी मोदी-अमित शाह की जोड़ी ऐसा कर चुकी है और फ़ायदा भी ले चुकी है.”
बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश के अलावा देश के तमाम राज्यों में कबीर पंथी फैले हुए हैं. कई जगहों पर इनकी अलग-अलग गद्दियां हैं और कुछेक भिन्नताओं के बावजूद कबीर के प्राकट्य स्थल काशी और निर्वाण स्थल मगहर में सबकी अगाध श्रद्धा है. जहां तक कबीर पंथियों की संख्या का सवाल है तो ये करोड़ों में बताई जाती है.
मगहर स्थित कबीर मठ के मुख्य महंत विचार दास कहते हैं, “कबीर साहेब की वाणी की अलग-अलग व्याख्या के चलते कबीरपंथी तमाम वर्गों यानी गद्दियों में भले ही बंटे हों, लेकिन मगहर सबकी आस्था का प्रमुख केंद्र है. हिन्दु, मुसलमान, सिख समेत तमाम जातियों और संप्रदायों के लोग यहां आते हैं. कबीरपंथ के अनुयायियों की बात करें तो देश भर में इनकी संख्या कम से कम चार करोड़ है.”

पूर्वांचल के दस ज़िलों की 13 सीटों पर इस पंथ को मानने वाले लोगों का ख़ासा प्रभाव है. जानकारों के मुताबिक दलितों-पिछड़ों को ही एक छत के नीचे लाकर बीजेपी ने 13 में से 12 सीटें जीत ली थीं.

लेकिन अब जिस तरह से महागठबंधन की चर्चा हो रही है, उससे बीजेपी को भी ये डर लगने लगा है कि कहीं दलित-पिछड़ा गठजोड़ उसे नुक़सान न पहुंचा दे. इसलिए ऐसी हर कोशिश वो करना चाहती है जिससे कि वो इन्हें अपने पक्ष में बनाए रखे.
मगहर जाकर कबीरपंथियों के ज़रिए दलितों और पिछड़ों को बीजेपी कितना साध सकती है, इसे लेकर राजनीतिक पर्यवेक्षक आशंका भी जताते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार सुभाष मिश्र कहते हैं, “यूपी-बिहार में दलितों और पिछड़ों को मठों के ज़रिए साध पाना इतना आसान नहीं है. यहां राजनीति के केंद्र में मठ नहीं हैं और मठ के महंतों का ऐसा राजनीतिक प्रभाव भी नहीं है. दूसरे, कबीरपंथियों के ज़रिए दलित-पिछड़ों को साधने के चक्कर में बीजेपी का पारंपरिक मतदाता उससे दूरी बना सकता है क्योंकि उसके लिए आस्था के केंद्र अयोध्या और राम हैं, न कि मगहर और कबीर.”
जानकारों के मुताबिक इनकी संख्या से ज़्यादा महत्वपूर्ण कबीर पंथ में आस्था रखने वाले वर्गों का महत्व है.

शरद प्रधान कहते हैं कि फूलपुर, गोरखपुर और कैराना के उपचुनाव बीजेपी के लिए आंखें खोलने वाले थे. उनके मुताबिक पार्टी को ये पता है कि यदि दलित-पिछड़ा गठजोड़ हुआ तो बीजेपी को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बावजूद बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है.

स्थानीय पत्रकार गौरव त्रिपाठी कहते हैं, “पूरे पूर्वांचल में कबीरपंथी बड़ी संख्या में हैं. पिछड़ों और दलितों पर इनकी पकड़ है क्योंकि ज़्यादातर कबीरपंथी इन्हीं वर्गों से ही हैं. ऐसे में मगहर को महत्व देने का सीधा संदेश है कबीरपंथियों को महत्व देना और कबीरपंथियों को महत्व देने से बीजेपी ये स्पष्ट कर देना चाहती है कि वो अभी भी पिछड़ों और दलितों के साथ है.”
मगहर में कबीर के प्राकट्य समारोह के प्रमुख आयोजक और खलीलाबाद से बीजेपी के सांसद शरद त्रिपाठी हालांकि इस बात से इनकार करते हैं कि ये महोत्सव राजनीतिक मक़सद से हो रहा है, लेकिन सिद्धार्थनगर, बस्ती, गोरखपुर समेत आस-पास के इलाक़ों से जिस तरह यहां होने वाली पीएम की रैली में लोगों से पहुंचने की अपील की गई और पूरा इलाक़ा पोस्टरों-बैनरों और होर्डिंग्स से पाट दिया गया, उसे देखते हुए इसके राजनीतिक मक़सद को ख़ारिज करना बड़ा मुश्किल लगता है.

लेकिन मगहर के ज़रिए कबीरपंथियों को साधने की कोशिश में पलीता लगना भी शुरू हो चुका है. वाराणसी स्थित कबीरचौरा मठ के महंत विवेक दास इस आयोजन पर सवाल उठा चुके हैं और बीजेपी नेताओं पर लोगों को भ्रमित करने का आरोप लगा चुके हैं. उनका कहना है कि कबीर वाराणसी में पैदा हुए थे तो उनका प्राकट्य उत्सव मगहर में क्यों मनाया जा रहा है?
हालांकि मगहर में आए तमाम श्रद्धालुओं से बातचीत में पता लगता है कि वो इसके पीछे के राजनीतिक मक़सद को समझने में दिलचस्पी नहीं लेते.

छत्तीसगढ़ के कोरबा से परिवार समेत आए दीनानाथ कहते हैं, “कबीर साहेब सब को साथ लेकर चलने की बात करते थे. सभी लोग साथ मिलकर रहें तो कितना अच्छा हो. हमलोग तो हर साल यहां आते हैं, अब प्रधानमंत्री या बड़े लोग भी यहां आ रहे हैं तो हमें नहीं मालूम क्यों आ रहे हैं.”

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