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जनता के लिए दर्द-ए-चालान, ट्रैफिक पुलिसवालों के लिए खुशी का मकाम

जेब जब ढीली होती है तो अच्छे-अच्छों को लाइन पे ले आती है. वर्ना सोचिए, वही सड़कें, वही गाड़ियां, वही लाल बत्ती, वही हेल्मेट वही सेट बेल्ट वही ट्रैफिक के नियम. पर ज़रा सा नोटों का रंग और साइज क्या बदला सब कुछ बदल गया. सड़कों पर खौफ पसर गया. लोग अपनी-अपनी गाड़ियों के आरसी, लाइसेंस, इंश्योरेंस और पॉल्यूशन सर्टिफिकेट ढूंढने लगे. लाल बत्ती को निहार-निहार कर उसके हरी होने का इंतजार मुस्कुरा कर करने लगे. मगर हां, कई जगहों पर दर्द-ए-चालान ऐसा छलका कि उसकी हर झलक झलकियां बन गईं.
पिछले कुछ दिनों से अचानक हिंदुस्तान की सड़कों पर एक अजीब सी उदासी छाई हुई है. सड़कों की रूमानियत कहीं खो सी गई है. ना गाड़ियों के हॉर्न की वो आवाज़ कानों में सुर-ताल छेड़ रही हैं. ना बाइकों की वो खूबसूरत बल खाती लहरिया चाल आंखों को ठंडक दे पा रही हैं. हेलमेट की गिरफ्त में आकर कमबख्त ज़ुल्फें भी हवा में कहां लहरा पा रही हैं. दुपहिया से तो जैसे हम दो हमारे दो के नारे ही छीन लिए गए हों.
तीन-चार साथ-साथ बैठने वाले दोस्त-परिवार अब हिस्सों और किश्तों में घूम रहे हैं. रफ्तार तो जैसे अब साल में दो-चार बार होने वाले फार्मूला वन रेस जैसी हो गई है. अब तक कमीज़ की क्रीज़ खराब कर देने या पेट के ऊपर आ जाने वाले सीट बेल्ट की रूठी किस्मत भी अचानक मानो जाग उठी है. और तो और अब तो नशे में भी तू जानता नहीं मैं कौन हूं कि बजाए गाड़ी में पड़े पूरे और अधूरे कागजात ही बस याद रहते हैं. दहशत और वहशत का आलम ये है कि कई जगह तो लोग अपने-अपने हिसाब से बाइक और स्कूटर को भी साइकिल बना दे रहे हैं. इधर, चालान की रसीद थामे पुलिस वाले दिखाई दिए, उधर झट से दुपहिया से उतर गए और पैदल ही आगे बढ़ने लगे. अब पुलिस भी क्या करे. बिना हेलमेट बाइक या स्कूटर चलाने पर तो चालान है. मगर बाइक या स्कूटर के साथ पैदल चलते कोई चालान नहीं है.
तो कुल मिला कर दस दिन पहले तक गुलज़ार रहने वाली सड़क पर अब हालत अच्छी नहीं है. दस-दस बार सोच कर लोग सड़कों पर अपनी गाड़ियों, स्कूटर या बाइक को उतार रहे हैं. दूर की नज़र पहले से ही दूरी पर गाड़ देते हैं. पता नहीं किस चौराहे, नुक्कड़ या सड़क किनारे से अचानक वो छम से आ जाएं. उनके आने से डर लगता है. क्योंकि उनके आने का मतलब पूरे महीने का बजट जाना है. हाथों में चालान की रसीद थामे वो अब ऐसे दिखते हैं, मानो सरहद पार के दुश्मन हों. जैसे ही उनके हत्थे चढ़े, काट डालेंगे चालान.
याद नहीं देश के किसी पॉल्यूशन सेंटर पर पहले कभी गाड़ियों की ऐसी कतार लगी हो. शुरू-शुरू में जब सीएनजी आया था, तब पेट्रोल पंप पर शायद ऐसी भीड़ होती थी. पर जैसे ही लोगों को पता चला कि भय्या ड्राइविंग लाइसेंस, आरसी और इंश्योरेंस के अलावा प्रदूषण सर्टिफिकेट ना होने पर भी दस हजार तक का चालान है, हर गाड़ी ने अपना रुख इधर ही मोड़ दिया.
वैसे लोग करें भी तो क्या. बीस-तीस-चालीस-पचास-साठ हज़ार तक के चालान के बारे में दस दिन पहले तक किसी ने सुना ही नहीं था. फिर अपने यहां सेकेंड हैंड का भी है. अब इसी के मारे जिन लोगों ने सेकेंड हैंड गाड़ी 15-25 पचास हजार में खरीदी हो और उससे ज्यादा रकम का चालान कट जाए तो चालान भरने से अच्छा यही समझते हैं कि गाड़ी में ही आग लगा दो. जितने की गाड़ी नहीं उससे ज्यादा चालान देना कहां की अकलमंदी है. दिल्ली में एक नौजवान ने ठीक यही किया था. खुद ही अपनी बाइक को आग के हवाले कर दिया. ट्रैफिक जाम हो गया. दमकल की गाड़ी बुलानी पड़ी.
कोई हेल्मेट से हारा है. तो कोई अधूरे क़ागज़ों का मारा है. किसी की ज़िंदगी रेड लाइट ने लाल कर दी तो किसी के नशीले चालान ने पूरे महीने का हैंग ओवर उतार डाला. वैसे बदली-बदली सी और उदास नज़र आ रही सड़कों ने कुछ लोगों को अचानक बेशुमार खुशियां भी अता कर दी हैं.
अचानक सड़कों पर सफेद वर्दीधारी मनुष्यों की तादाद बढ़ी-बढ़ी नज़र आ रही है. गर्मी और उमस के बावजूद उनके चेहरों पर एक अजीब से तेज चमक दिखाई देने लगी है. दबी जुबान में तो लोग यहां तक कहने लगे हैं कि नया मोटर कानून इनके लिए एक तरह से आठवां वेतनमान लेकर आया है.

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