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हाशिमपुर नरसंहार: शर्मसार इंसानियत, सहमा हुआ इंसाफ

मेरठ का हाशिमपुरा नरसंहार देश की आजादी के बाद हिरासत में मौत का सबसे बड़ा मामला है. इस नरसंहार के पीड़ितों और उनकी पैरवी करने वाले वकीलों और सिविल सोसाइटी के लोगों का कहना है कि प्रदेश और देश के वरिष्ठ अधिकारियों के इशारे के बिना इतना बड़ा नरसंहार नहीं हो सकता. वर्ष 2012 में हमारी टीम ने हाशिमपुरा कांड के पीड़ितों, उनके परिवारों और इस मामले पर नजर रखने वालों की राय जानी थी. पेश है उस रिपोर्ट के कुछ अंश.
बीजेपी के राज्यसभा सांसद डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी इसके लिए तत्कालीन गृह राज्यमंत्री पी. चिदंबरम को दोषी मानते हैं. स्वामी का आरोप है, ”चिदंबरम ने 18 मई, 1987 को मेरठ कलेक्टरेट में आला अधिकारियों की बैठक की थी. उसी बैठक में उन्होंने कहा था, ‘उन्हें सबक सिखाओ. आखिर सरकार की ताकत क्या है? 40-50 नौजवानों को उठाकर मार दो.’ उस बैठक में मोहसिना किदवई शामिल नहीं थीं.” किदवई मेरठ की सांसद और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार में शहरी विकास की कैबिनेट मंत्री थीं.
डॉ. स्वामी का कहना था, ”उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने मुझे बताया था कि इस नरसंहार के लिए चिदंबरम दोषी है.” उन्होंने इस बाबत प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर जवाब मांगा था और जवाब न मिलने की सूरत में मामले को इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट में ले जाने की धमकी दी थी. इंडिया टुडे के प्रयासों के बावजूद पी. चिदंबरम की प्रतिक्रिया इस मामले पर नहीं मिल पाई थी.
दरअसल, फरवरी 1986 में राजीव गांधी सरकार के बाबरी मस्जिद का ताला खोलने के फैसले के बाद से उत्तर भारत, खासकर उत्तर प्रदेश के कई शहरों में दंगा-फसाद शुरू हो गया था. मेरठ में अप्रैल में दंगा भड़का था, लेकिन उसे दबा दिया गया. इसके बाद वहां तैनात की गई सुरक्षा बलों की 38 टुकड़ियों को क्रमशः हटा लिया गया.
18 मई को फिर दंगा भड़का और उसे दबाने के लिए पुलिस, सेना, सीआरपीएफ और प्रोविंशियल आर्म्ड कॉन्सटेबलरी (पीएसी) के जवानों को बुलाया गया. दंगों का दौर थमा नहीं था कि 21 मई को हाशिमपुरा के बगल के मुहल्ले अब्दुल वाली में रहने वाली भाजपा की वरिष्ठ नेता शकुंतला कौशिक का भान्जा प्रभात शर्मा उनकी छत पर मारा गया.
हाशिमपुरा के स्थानीय लोगों का कहना है कि पीएसी की क्रॉस फायरिंग में प्रभात की मौत हो गई. दंगों के दौरान कौशिक ने अपनी आत्मकथा प्रेरणा में लिखा है, ”मेरा बड़ा भान्जा सतीश मेरठ में ही मेजर था, और बड़ा भतीजा लखनऊ में पुलिस अधिकारी था.” इस घटना के अगले ही दिन हाशिमपुरा के मुस्लिम नौजवानों के साथ जो हुआ, वह शर्मनाक इतिहास बन गया.
शासन तंत्र की निष्ठुरता
नरसंहार के उजागर होने के बाद मीडिया, सभ्य समाज और अल्पसंख्यक संगठनों ने जमकर नाराजगी जाहिर की. उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने इसकी जांच का जिम्मा क्राइम ब्रांच सेंट्रल इनवेस्टिगेशन डिपार्टमेंट (सीबीसीआइडी) को सौंपा, जिसने छह साल बाद फरवरी 1994 में रिपोर्ट दी. मगर मुलायम सिंह यादव (जनता दल-सपा), कल्याण सिंह (भाजपा) और मायावती (बसपा) की सरकारों ने दोषियों को सजा दिलाने के लिए खास कुछ नहीं किया.
फरवरी 1995 में पीएसी के 19 जवानों के खिलाफ गाजियाबाद के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (सीजेएम) की अदालत में आरोपपत्र दाखिल किया गया. अदालत ने जनवरी 1997 से अप्रैल 2000 के दौरान अभियुक्तों के खिलाफ छह जमानती और 17 गैर जमानती वारंट जारी किए हालांकि तब सभी अभियुक्त पीएसी की एक्टिव सर्विस में थे. मई 2000 में मीडिया में हंगामे के बाद 19 में से 16 अभियुक्त हाजिर हुए और जून-जुलाई में सबको जमानत मिल गई क्योंकि ”सरकारी नौकर” होने की वजह से वे फरार नहीं होंगे.
इस बीच दंगा पीड़ितों के आवेदन पर सुप्रीम कोर्ट ने मामले को 2002 में दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया. 2002-04 तक उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई क्वालिफाइड और प्रोफेशनल स्पेशल पब्लिक प्रोसीक्यूटर (एसपीपी) नियुक्त नहीं किया. मार्च 2004 से 2006 तक दो एसपीपी नियुक्त हुए पर दोनों विफल रहे.
पुलिस प्रशासन में संस्थागत पूर्वाग्रह
हाशिमपुरा नरसंहार के बाद अभियुक्त पीएसी जवानों को छह महीने के लिए निलंबित किया गया था और फिर उन्हें सेवा में बहाल कर दिया गया. वकील वृंदा ग्रोवर कहती हैं, ”हमें आरटीआइ से पता चला कि उनकी (1987 से 2002 तक) वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उनके खिलाफ जांच होने तक का जिक्र नहीं है, यह भी नहीं है कि वे हत्या के आरोपी हैं या उन पर (दिल्ली के) तीस हजारी कोर्ट में मुकदमा चल रहा है. उसमें लिखा हुआ है कि वे बहुत अनुशासित सिपाही हैं, बहुत चुस्त कबड्डी के खिलाड़ी हैं.”
पीएसी के तीन अभियुक्तों का देहांत हो चुका है. पूर्व सांसद सैयद शहाबुद्दीन ने कहा था, ”जिन लोगों ने कम्युनल किलिंग में हिस्सा लिया, कस्टोडियल किलिंग की, उनको डिसमिस नहीं किया.” ग्रोवर कहती हैं, ”इस देश की पुलिस में संस्थागत पूर्वाग्रह है. यह एक मछली पूरे तालाब को गंदा करने वाला मामला नहीं है. सही है कि एक-दो लोग ही गलती करते हैं, पर पूरी संस्था उसे बचाने में जुट जाती है.”
इंसाफ के पांव में बेड़ी
ग्रोवर कहती हैं, ”सीबीसीआइडी को इस केस की जांच में छह साल लग गए. जांच का लंबा खिंचने का मतलब है कि केस कमजोर कर दिया जाएगा.” यह पूरा मामला परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर टिका है. पीएसी की 41वीं वाहिनी ड्यूटी पर थी. लॉग बुक में है कि कौन-सा ट्रक कहां गया, कितना डीजल था, कितने किमी चला. कौन-से फायर आर्म किसको दिए गए.
ट्रक पर अंधाधुंध गोली चलाने से पीएसी के आदमी को गोली लगी. अगले दिन उसे अस्पताल ले जाया गया, उसकी मेडिकल रिपोर्ट है. वह मामले का अभियुक्त है. सारे सबूत पीएसी के नियंत्रण में हैं. पीएसी के प्लाटून कमांडर (दिवंगत सुरेंद्र पाल सिंह) के हस्ताक्षर पहचानने से उनके जवान इनकार कर देते हैं. अदालत के सामने उस हस्ताक्षर की पुष्टि जरूरी है. ग्रोवर कहती हैं, ”केस लंबा चलेगा तो गवाह मरेंगे, जिंदा भी रहे तो घटना के बारे में भूल जाएंगे.”
हाशिमपुरा नरसंहार के पीड़ितों की पैरवी करने वाले वकील मोहम्मद जुनैद कहते हैं, ”पीएसी के अभियुक्तों की गवाही हो चुकी है. सेना के मेजर जी.एस. पठानिया और कर्नल चीमा इस मामले में महत्वपूर्ण गवाह हैं, लेकिन कई बार समन भेजने के बावजूद वे नहीं आए. हमें लगता है कि ये दोनों इस मामले पर ज्यादा रोशनी डाल सकते हैं.” सेना के कुछ गवाह आज भी पेंशन लेते हैं लेकिन वे गवाही के लिए नहीं आते.
ग्रोवर को लगता है कि पीड़ित केस हार भी सकते हैं, हालांकि जुनैद को इंसाफ की उम्मीद थी. डॉ. स्वामी का कहना है, ”नाजियों के हाथ यदियों के नरसंहार के न्यूरमबर्ग ट्रायल में 40 साल बाद इंसाफ मिला. इस मामले में इंसाफ इस देश के अस्तित्व के लिए जरूरी है.” बहरहाल यह सवाल अब भी मुंह बाए खड़ा है कि दिल्ली से 80 किमी दूर इतना बड़ा हिंसा का ज्वालामुखी पक रहा था और केंद्र को क्यों इसकी खबर तक नहीं थी.

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